देवव्रत: प्रतिज्ञा या भीष्मता

 भीष्म पितामह महाभारत के एक अनूठे पात्र थे। उनके जन्म की कथा ज्यादातर लोगों को पता होगी पर उनके जन्म का कारण शायद कम लोगो को पता हो। वे एक वसु थे जो श्राप के कारण धरती पर गंगा मैया की कोख से अवतरित हुए थे। उनके जन्म के पीछे की कहानी ये हैं की इंद्र के ८ वसु देवताओं के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। तभी एक वसु ने अपनी पत्नी को वशिष्ठ ऋषि का आश्रम और उनकी होमधेनु नंदिनी गाय दिखाई। उस गाय की विशेषता थी की उसका दूध पीने वाला इंसान कभी वृद्ध नही होता। वसुपत्नी ने अपने पति से वो गाय अपने लिए लाने को बोला। वसु जानते थी की ऋषि गाय कभी नहीं देंगे। सबके समझाने के बाद भी जब वसु पत्नी नही मानी तो फिर सभी वसु ने मिलके गाय चोरी कर ली। वशिष्ठ मुनि को जब इस बात का ज्ञान हुआ तो उन्होंने सभी वसुओ को देवलोक से मृत्युलोक में जन्म लेने का श्राप दिया। जब वे सब पृथ्वी पर आ रहे थे तब माता गंगा से भेट हुई। उन्होंने मनुष्य स्त्री की कोख से जन्म न लेना और पृथ्वी पर समय न गुजारना पड़े इसलिए गंगा मैया को उनकी माता बनके उन्हे जन्म देकर अपने प्रवाह में बहाने को कहा। माता गंगा ने वसुओ को जन्म देने का स्वीकार तो किया लेकिन इस शर्त पर की वो ८ में से एक वसु को वो अपने प्रवाह में नही बहाएगी। ये वसु सभी वसुओ को मिले श्राप का वहन करने के लिए पृथ्वी पर मनुष्य बनकर समय काटेगा। इस प्रकार ८ वे वसु यानी देवव्रत पृथ्वी पर आए। अपने पिता के सत्यवती के साथ पुनर्विवाह और खुद किसी बंधन में न फसे इसलिए उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली। इस प्रतिज्ञा को उन्होंने इस प्रकार निभाया जैसे वे पृथ्वी पर आए ही इसी लिए थे की अपना श्राप वहन कर वापिस देवलोक में वसु बन कर लौट सके। जब जब कुरु वंश पर आपत्ति आई तब तब माता सत्यवती के लाखो बार कहेने पर भी ये भीष्म प्रतिज्ञा न टूटी। जब हस्तिनापुर खतरे में था तब भी भीष्म अडग रहे, इस बात पर की वे राजा नही बनेंगे। दूसरी घटना द्रौपदी चिर हरण के समय थी, जब वे द्रौपदी के साथ हो रहे अपमान के विरुद्ध कुछ न बोल सके क्योंकि वे राजा के अधीन थे. इतने शक्तिशाली  पितामह कुरु राष्ट्र को ध्वस्त होता देख चुप रहे। जब जब कौरवों ने गलत चीज की तब उन्हे रोकने के बजाय हस्तिनापुर के सिंहासन पे आरूढ़ राजा के प्रति अपने कर्तव्य को समझा। वे हमेशा से जानते थे कौरवों की अभिलाषा, उनके इरादे फिर भी अंत तक उनका साथ दिया। जिस राज्य को बचाने की जिम्मेदारी लेकर कार्य किए उसी राज्य के टुकड़े होते देखा, अपने परिजनों को अपनी आंखो के सामने मरते देखा। क्यों? प्रतिज्ञा से ऊपर धर्म-अधर्म, सामर्थ्य, स्नेह, भावना कुछ भी नही था? जिस सिंहासन की रक्षा का वचन अपने पिता को ऐसी भीषण प्रतिज्ञा लेके किया था ,उसका वहन सही अर्थ में कर पाए थे? जीवनभर बंधन से मुक्त होके रहने के लिए, पृथ्वी लोक पर संबंध में उलझे न रहेने के लिए, मानव सहज भावनाओ से दूर रहेने के लिए, जल्द ही पृथ्वी लोक से देव लोक जाने के लिए जिस भिष्मता को उन्होंने धारण किया उसमे सफल हुए क्या? इच्छा मृत्यु की वजह से अंत में बाण शैया पर आरूढ़ अकेले पीड़ा में उत्तरायण की राह में सोए भीष्म जब अपनी पूरे जीवन को देखते तो क्या सोचते? भीष्म महाभारत के वो पात्र हैं जो बंधन में ना होके भी प्रतिज्ञा से बंध गए। जिस दुख दर्द से दूर रहेना चाह रहे थे उसी में उलझे रहे। इतना सामर्थ्यवान होने के बाद भी धृतराष्ट्र या कौरवों को युद्ध के लिए रोक नहीं पाए, अपने प्रिय पांडवो का साथ न दे पाए। भीष्म के जीवन से हम कई सिख ले सकते हैं। अगर भीष्म स्वयं अपने जिए जीवन को देखते तो वे भी कई चीजों को अलग तरीके से करने का सोचते। परिस्थिति में जो सर्वोनुचित होता वो करते , युद्ध होने नही देते, जो काबिल नही था उनके हाथों राज्य का पतन होने नही देते। कदाचित भीष्म बनना दुर्लभ था, पृथ्वी लोक पर आए इस वसु को पृथ्वी वासियों से जुड़कर भी जुड़ना नियति में नही था।

Comments

You are welcome to share your ideas with us in comments !

Archive

Contact Form

Send