जुड़ाव और विराग का उत्सव: गणेश उत्सव

जुड़ाव और विराग का उत्सव: गणेश उत्सव 

इस वर्ष मैंने महाराष्ट्र में गणेश उत्सव की भव्यता को बहुत करीब से महसूस किया। गणपति बाप्पा के आगमन से पहले मेरे मन में एक इच्छा जागी-इस बार मैं भी मिट्टी के गणपति बनाऊं और उन्हें अपने घर में स्थापित करूं। परंतु विधि-विधान का पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण यह विचार त्यागना पड़ा।

गणेश पर्व के दौरान देवगड का वातावरण भी श्रद्धा से परिपूर्ण था। हम लोगों के घर जाते थे और बाप्पा के प्रति उनका प्रेम देखकर मन भावविभोर हो जाता था। रविवार को मैंने बाप्पा की मिट्टी से मूर्ति बनाने का निश्चय किया। बिना अधिक योजना बनाए, केवल निर्मल मन से जितना संभव हो सके उतना करने का संकल्प लेकर बाप्पा के स्वागत की तैयारी शुरू की।

शाम को जब मैं मूर्ति बनाने बैठी, तो एक अलग ही आनंद की अनुभूति हो रही थी। कुछ वीडियो अवश्य देखे थे, पर मिट्टी से सने हाथों से लैपटॉप खोलना संभव न था। इसलिए जैसे मन में छवि थी, वैसे ही गणपति बाप्पा को आकार दिया। बाप्पा विघ्नहर्ता हैं, पर विघ्नराजा भी माने जाते हैं-शायद मेरी भी परीक्षा हो रही थी। कुछ छोटी-मोटी कठिनाइयों को पार कर मैंने गणपति की मूर्ति तैयार कर ली।


मैंने अपने बनाए गणेश का नाम "गन्नू" रखा। शायद दूसरों की दृष्टि में वे परिपूर्ण न हों, पर मुझे वे सबसे सुंदर लगे। छोटे से गन्नू का निर्माण हुआ और मैं अत्यंत प्रसन्न थी। यह मेरे जीवन का पहला अनुभव था जब मैंने स्वयं गणपति बनाए। वातावरण पूरी तरह गणेशमय हो गया था, और मैं गन्नू से बात भी करती थी। जो कुछ उनके बारे में जानती थी, उससे अधिक जानने का संकल्प लिया। कुछ बातें अनुभव पर भी छोड़ दीं।

प्रकृति से बने गन्नू में पूजा द्वारा प्राण प्रतिष्ठा की कोशिश की। सुबह-शाम उनके प्रिय फूल और मिठाई अर्पित करने में एक विशेष अनुभूति होती थी। आरती के समय समर्पण का भाव जागृत होता था। मेरा प्रयास यही रहता कि श्रद्धा की ज्योति बनी रहे। हर समय कुछ न कुछ मांगते रहना, मिली हुई चीजों में असंतोष का संकेत देता है। जीवन में जो भी मेहनत, प्रारब्ध और आशीर्वाद से मिलना है, वह मिलेगा ही-इस विश्वास को बनाए रखना आवश्यक है।

आज अनंत चतुर्थी थी-विसर्जन का दिन। बाप्पा हर वर्ष आते हैं, निर्मोही बनने का पाठ पढ़ाते हैं, और फिर उन्हें विदा भी करना पड़ता है। आज उनका विसर्जन करते समय कुछ क्षण ठहर गई। ऐसा लगा जैसे वे संदेश दे रहे हों-लगाव स्वाभाविक है, पर स्थायी नहीं। जीवन में बहते रहना, आगे बढ़ते रहना, और परिवर्तन को स्वीकार करना ही एकमात्र मार्ग है, चाहे वह कितना भी कठिन क्यों न लगे।

मैं समंदर की लहरों में गई, बाप्पा को खुशी-खुशी विदा किया, उनसे कुछ और संवाद किया और फिर अपने कार्यों में लग गई।


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