देखा हैं

जो पाया भी नहीं,
उसके लूट जाने का गम देखा हैं, 
इस जिद की आग़ोशमे फसे इंसान को,
मुक्कमल चीजो से परहेज होते देखा हैं।
आदत सी बन गई हैं उसकी,
मायूसी से महोब्बत करने की,
जश्न से मुह फेर कोने में समाए देखा हैं।
खुद से बेइंतिहा लड़ते थकते देखा हैं ,
हर दर्द को जहन में समेटकर ,
उसको जायज़ मानते देखा हैं।
दुसरो के दिये खुशी गम में खोए देखा है,
खुद की डोर दुIसरो को थामते देखा है ,
कदम कदम पर ख्वाहिशो ने दम तोड़ा है,
अपनी अहमियत की कुर्बानी देते देखा हैं।

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